27-09-71  ओम शान्ति  अव्यक्त बापदादा  मधुबन

स्नेह की शक्ति द्वारा सत्यता की प्रत्यक्षता

इस समय सभी की स्मृति में वा नयनों में क्या है? एक बात है वा दो हैं वा एक में दो हैं? वह क्या है? (एक ही बाप है) आज सभी एक मत और एक ही बात पर हैं। अच्छा, इस समय तो एक बात है लेकिन वैसे वर्तमान समय स्मृति में व नयनों में सदैव क्या रहता है? सिर्फ घर जाना है- यह याद रहता है? सर्विस करने बिगर कैसे जायेंगे? वर्सा भी अपने लिए तो याद रहा, लेकिन दूसरों को भी वर्सा दिलाना है - यह भी तो याद रहना है। हर कदम में स्मृति में बाप की याद और साथ-साथ सर्विस वा सिर्फ याद रहती है और रहनी चाहिए? चलते-फिरते, कर्म करते अगर यह स्मृति में रहेगा कि हम हर समय ईश्वरीय सेवा के अर्थ निमित्त हैं, स्थूल कार्य करते भी ईश्वरीय सेवा के निमित्त हैं - यह स्मृति रहने से, सदैव निमित्त समझने से कोई भी ऐसा कर्म नहीं होगा जिससे डिस-सर्विस हो। यह स्मृति भूल जाती है तब साधारण कर्म वा साधारण रीति समय जाता रहता है। जैसे देखो, कोई विशेष सर्विस अर्थ निमित्त बनते हो; तो जितना समय विशेष सर्विस का रूप सामने होता है उतने समय की स्टेज वा स्थिति अच्छी होती है ना। क्योंकि समझते हैं हम इस समय सभी के सामने सर्विस के लिए निमित्त हूँ। ऐसे ही स्थूल कार्य करते हुए भी यह स्मृति में रहे कि इस समय मन्सा द्वारा विश्व को परिवर्तन करने की सेवा में उपस्थित हूँ, तो क्या स्थिति रहेगी? अटेन्शन रहता है, चेकिंग रहती है? इस प्रकार अगर सदा अपने को विश्व की स्टेज पर विश्व-कल्याण की सेवा अर्थ समझते हो; तो फिर साधारण स्थिति वा साधारण चलन वा अलबेलापन रहेगा? और कितना समय व्यर्थ जाने से सफल हो जायेगा, जमा का खाता कितना बढ़ जायेगा! ऐसे कोई के ऊपर बहुत बड़ी ज़िम्मेवारी होती है तो वह एक-एक सेकेण्ड अपना अमूल्य समझते हैं। अगर एक-दो मिनिट भी व्यर्थ चला जाए तो उनके लिए वह दो मिनिट भी बहुत बड़ा समय देखने में आता है। तो सभी से बड़ी ते बड़ी ज़िम्मेवारी आपके ऊपर है। और किसकी इतनी बड़ी ज़िम्मेवारी है, जितनी आपकी इस समय है? तो सारे विश्व का कल्याण, जड़, चैतन्य - दोनों को परिवर्तन करना है। कितनी बड़ी ज़िम्मेवारी है! तो हर समय यह स्मृति रहे कि बाप ने इस समय कौनसी ड्यूटी दी है! एक आंख में बाप का स्नेह, दूसरी आंख में बाप द्वारा मिला हुआ कर्त्तव्य अर्थात् सेवा। तो स्नेह और सेवा - दोनों साथ-साथ चाहिए। स्नेही भी प्रिय हैं, लेकिन सर्विसएबल ‘ज्ञानी तू आत्मा’ अति प्रिय हैं। तो दोनों ही साथ-साथ चाहिए। अपनी स्थिति जब दोनों की साथ-साथ स्मृति होगी तब ही सर्विस करने के समय स्नेहीमूर्त भी होंगे। लेकिन सिर्फ स्नेह भी नहीं चाहिए, स्नेह के साथ और क्या चाहिए? (शक्तिरूप) शक्तिरूप तो होंगे ही लेकिन शक्तिरूप का प्रत्यक्ष रूप क्या दिखाई देगा? सर्विस की रिजल्ट में नम्बर किस आधार पर होते हैं? क्योंकि वाणी में जौहर भरा हुआ है अर्थात् स्नेह के साथ शब्दों में ऐसा जौहर होना चाहिए जो उन्हों के ह्दय विदीर्ण हो जायें! अभी तक रिजल्ट क्या है? या तो बहुत जौहर दिखाती हो वा बहुत स्नेह दिखाती हो, या तो बिल्कुल ही हल्के रूप में बोलेंगे या बहुत जोश में बोलेंगे। लेकिन होना क्या चाहिए? एक-एक शब्द में स्नेह की रेखाएं होनी चाहिए। फिर भले कैसे भी कडुवे शब्द बोलेंगे तो ह्दय में लगेंगे जरूर, लेकिन वह शब्द कडुवे नहीं लगेंगे, यथार्थ लगेंगे। अभी अगर शब्द तेज बोलते हैं तो रूप में भी तेजी का भाव दिखाई देता, जिससे कई लोग यही कहते हैं कि आप लोगों में अभिमान है वा अपमान करते हो। लेकिन एक तरफ ठोकते जाओ दूसरे तरफ साथ-साथ स्नेह भी देते जाओ; तो आपके स्नेह की मूर्त से अपना तिरस्कार महसूस नहीं करेंगे लेकिन यह अनुभव करेंगे कि हम आत्माओं के ऊपर तरस है। तिरस्कार की भावना बदल तरस महसूस करेंगे। तो दोनों साथ-साथ चाहिए ना - कहते हैं ना मखमल की जुत्ती लगानी होती है। तो सर्विस के साथ अति तरस भी हो और फिर साथ-साथ जो अयथार्थ बातें हैं उनको यथार्थ करने की खुशी भी होनी चाहिए।

बातें सभी स्पष्ट देनी हैं लेकिन स्नेह के साथ। स्नेहमूर्त होने से उन्हों को जगत्-माता के रूप का अनुभव होगा। जैसे मां बच्चे को भले कैसे भी शब्दों में शिक्षा देती है, तो मां के स्नेह कारण वह शब्द तेज वा कडुवे महसूस नहीं होते। समझते हैं - मां हमारी स्नेही है, कल्याणकारी है। वैसे ही आप भले कितना भी स्पष्ट शब्दों में बोलेंगे लेकिन वह महसूस नहीं करेंगे। तो ऐसे दोनों स्वरूप के समानता की सर्विस करनी है, तब ही सर्विस की सफलता समीप देखेंगे। कहॉं भी जाओ तो निर्भय होकर। सत्यता की शक्ति स्वरूप होकर, आलमाइटी गवर्मेन्ट के सी.आई.डी. के आफीसर होकर उसी नशे से जाओ। इस नशे से बोलो, नशे से देखो। हम अनुचर हैं - इसी स्मृति से अयथार्थ को यथार्थ में लाना है। सत्य को प्रसिद्ध करना है, न कि छिपाना है। लेकिन दोनों रूपों की समानता चाहिए। किसको देखते हो वा कुछ सुनते हो तो तरस की भावना से देखते-सुनते हो, या सीखने और कॉपी करने के लक्ष्य से सुनते- देखते हो? आजकल की जो भी अल्पसुख भोगने वाली आत्मायें प्रकृति दासी के शो में दिखाई देती हैं, उन्हों के शो को देखकर स्थिति क्या रहती है? यह आत्मायें इस तरीके वा इस रीति-रस्म में प्रकृति दासी के रूप में स्टेज पर प्रख्यात हुई हैं, इसलिए हमें भी ऐसा करना चाहिए वा हमें भी इन्हों के प्रमाण अपने में परिवर्तन करना चाहिए - यह संकल्प भी अगर आया तो उनको क्या कहेंगे? क्या दाता के बच्चे भिखारियों की कॉपी करते? आप के आगे कितने भी पाम्प शो में आने वाली आत्माएं हों लेकिन होवनहार प्रत्यक्ष रूप के भिखारी हैं। इन सभी आत्माओं ने बापदादा के बच्चों से थोड़ी-बहुत शक्ति की बूंदों को धारण किया है। आप लोगों के शक्ति की अंचली लेने से आजकल इस अंचली के फल, प्रकृति दासी के फलरूप में देख रहे हैं। लेकिन अंचली लेने वाले को देख सागर के बच्चे क्या हो जाते हैं? प्रभावित। यह सभी थोड़े समय में ही आप लोगों के चरणों में झुकने लिए तड़पेंगे। इसलिए स्नेह के साथ सर्विस का जोश भी होना चाहिए। जैसे शुरू में स्नेह भी था और जोश भी था। निर्भय थे, वातावरण वा वायुमण्डल के आधार से परे। इसलिए एकरस सर्विस का उमंग और जोश था। अभी वायुमण्डल वा वातावरण देख कहां- कहां अपनी रूप-रेखा बदल देते हो। इसलिए सफलता कब कैसे, कब कैसे दिखाई देती है। जबकि कलियुग अन्त की आत्माएं अपनी सत्यता को प्रसिद्ध करने में निर्भय होकर स्टेज पर आती हैं, तो पुरूषोत्तम संगमयुगी सर्वश्रेष्ठ आत्माएं अपने को सत्य प्रसिद्ध करने में वायुमण्डल प्रमाण रूप रेखा क्यों बनाती हैं? आप मास्टर रचयिता हो ना। वह सभी रचना हैं ना। रचना को मास्टर रचयिता कैसे देखेंगे? जब मास्टर रचता के रूप में स्थित होकर देखेंगे तो फिर यह सभी कौनसा खेल दिखाई देगा? कौनसा दृश्य देखेंगे? जब बारिस पड़ती है तो बारिस के बाद कौनसा दृश्य देखते हैं? मेंढ़क थोड़े से पानी में महसूस ऐसे करते हैं जैसे सागर में हैं। ट्रां-ट्रां......... करते नाचते रहते हैं। लेकिन है वह अल्पकाल सुख का पानी। तो यह मेंढ़कों की ट्रां-ट्रां करने और नाचने-कूदने का दृश्य दिखाई देगा, ऐसे महसूस करेंगे कि यह अभी- अभी अल्पकाल के सुख में फूलते हुए गये कि गये। तो मास्टर रचयिता की स्टेज पर ठहरने से ऐसा दृश्य दिखाई देगा। कोई सार नहीं दिखाई देगा। बिगर अर्थ बोल दिखाई देंगे। तो सत्यता को प्रसिद्ध करने की हिम्मत और उल्लास आता है? सत्य को प्रसिद्ध करने का उमंग आता है कि अभी समय पड़ा है? क्या अभी सत्य को प्रसिद्ध करने में समय पड़ा है? फलक भी हो और झलक भी हो। ऐसी फ़लक हो जो महसूस करें कि सत्य के सामने हम सभी के अल्पकाल के यह आडम्बर चल नहीं सकेंगे। जैसे स्टेज पर ड्रामा दिखाते हैं ना - कैसे विकार विदाई ले हाथ जोड़ते, सिर झुकाते हुए जाते हैं! यह ड्रामा प्रैक्टिकल विश्व की स्टेज पर दिखाना है। अब यह ड्रामा की स्टेज पर करने वाला ड्रामा बेहद के स्टेज पर लाओ। इसको कहा जाता है सर्विस। ऐसे सर्विसएबल विजयी माला के विशेष मणके बनते हैं। तो ऐसे सर्विसएबल बनना पड़े। अभी तो यह प्रैक्टिस कर रहे हैं। पहले प्रैक्टिस की जाती है तो छोटे-छोटे शिकार किए जाते हैं, फिर होता है शेर का शिकार। लास्ट प्रैक्टिकल पार्ट हू-ब-हू ऐसे देखेंगे जैसे यह छोटा ड्रामा। तब एक तरफ जयजयकार और एक तरफ हाहाकार होगी। दोनों एक ही स्टेज पर। अच्छा।